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श्रीमद् वाल्मीकि रामायण
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काण्ड 7: उत्तर काण्ड
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सर्ग 59: ययाति का अपने पुत्र पूरु को अपना बुढ़ापा देकर बदले में उसका यौवन लेना और भोगों से तृप्त होकर पुनः दीर्घकाल के बाद उसे उसका यौवन लौटा देना, पूरु का अपने पिता की गद्दी पर अभिषेक तथा यदु को शाप
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श्लोक 5
श्लोक
7.59.5
बहिष्कृतोऽहमर्थेषु संनिकर्षाच्च पार्थिव।
प्रतिगृह्णातु वै राजन् यै: सहाश्नासि भोजनम्॥ ५॥
अनुवाद
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पृथ्वीनंदन! आपने मुझे धन से वंचित कर दिया है और आपकी निकटता पाने का सुख भी छीन लिया है। ऐसे में जिन लोगों के साथ आप बैठकर भोजन करते हैं, उनके साथ ही मेरा यौवन काल बीते।
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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