श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 7: उत्तर काण्ड  »  सर्ग 58: ययाति को शुक्राचार्य का शाप  »  श्लोक 20
 
 
श्लोक  7.58.20 
 
 
न मां त्वमवजानीषे दु:खितामवमानिताम्।
वृक्षस्यावज्ञया ब्रह्मंश्छिद्यन्ते वृक्षजीविन:॥ २०॥
 
 
अनुवाद
 
  आप नहीं जानते कि इस गृह में में कितने कष्ट में हूँ और मेरा कितना अपमान होता है। हे स्वामी! वृक्ष के प्रति जो उपेक्षा की जा रही है उससे केवल आश्रित फूलों और पत्तियों को ही तोड़ा और नष्ट किया जा रहा है (उसी तरह राजा के द्वारा आपका जो अनादर किया जा रहा है उसकी वजह से यहाँ मेरा अपमान हो रहा है)।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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