श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 7: उत्तर काण्ड  »  सर्ग 40: वानरों, रीछों और राक्षसों की बिदार्इ  »  श्लोक 24
 
 
श्लोक  7.40.24 
 
 
मदङ्गे जीर्णतां यातु यत् त्वयोपकृतं कपे।
नर: प्रत्युपकाराणामापत्स्वायाति पात्रताम्॥ २४॥
 
 
अनुवाद
 
  कपिश्रेष्ठ! मैं तो बस यही चाहता हूँ कि तुमने जो-जो उपकार किये हैं, वे सब मेरे शरीर में ही पच जायें और उनका बदला चुकाने का मुझे कभी मौका ही न मिले। क्योंकि पुरुष में उपकार का बदला चुकाने की योग्यता तभी आती है जब वह आपत्तिकाल में हो (मैं नहीं चाहता कि तुम भी संकट में पड़ो और मैं तुम्हारे उपकार का बदला चुकाऊँ)।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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