श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 7: उत्तर काण्ड  »  सर्ग 39: राजाओं का श्रीराम के लिये भेंट देना और श्रीराम का वह सब लेकर अपने मित्रों, वानरों, रीछों और राक्षसों को बाँट देना तथा वानर आदि का वहाँ सुखपूर्वक रहना  »  श्लोक 20-24
 
 
श्लोक  7.39.20-24 
 
 
आभाष्य च महावीर्यान् राघवो यूथपर्षभान्।
नीलं नलं केसरिणं कुमुदं गन्धमादनम्॥ २०॥
सुषेणं पनसं वीरं मैन्दं द्विविदमेव च।
जाम्बवन्तं गवाक्षं च विनतं धूम्रमेव च॥ २१॥
बलीमुखं प्रजङ्घं च संनादं च महाबलम्।
दरीमुखं दधिमुखमिन्द्रजानुं च यूथपम्॥ २२॥
मधुरं श्लक्ष्णया वाचा नेत्राभ्यामापिबन्निव।
सुहृदो मे भवन्तश्च शरीरं भ्रातरस्तथा॥ २३॥
युष्माभिरुद‍्धृतश्चाहं व्यसनात् काननौकस:।
धन्यो राजा च सुग्रीवो भवद्भि: सुहृदां वरै:॥ २४॥
 
 
अनुवाद
 
  श्रीरघुनाथ जी ने महापराक्रमी वानरों के सरदारों को बुलाया, जिनमें नील, नल, केसरी, कुमुद, गंधमादन, सुषेण, पनस, वीर मैन्द, द्विविद, जाम्बवान, गवाक्ष, विनत, धूम्र, बलीमुख, प्रजंघ, महाबली संनाद, दरीमुख, दधिमुख और यूथपति इंद्रजानु शामिल थे। उन्होंने उन पर ऐसे नजर डाली जैसे उन्हें अपनी आँखों से पी रहे हों। फिर उन्होंने प्यार भरी और मधुर वाणी में उनसे कहा, "हे वानरवीरो! आप मेरे मित्र, शरीर और भाई हैं। आपने ही मुझे संकट से उबारा है। राजा सुग्रीव आपके जैसे श्रेष्ठ मित्र पाकर धन्य हैं।"
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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