श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 7: उत्तर काण्ड  »  सर्ग 35: हनुमान्जी की उत्पत्ति, शैशवावस्था में इनका सूर्य, राहु और ऐरावत पर आक्रमण, इन्द्र के वज्र से इनकी मूर्च्छा, वायु के कोप से संसार के प्राणियों को कष्ट और उन्हें प्रसन्न करने के लिये देवताओं सहित ब्रह्माजी का उनके पास जाना  »  श्लोक 11
 
 
श्लोक  7.35.11 
 
 
किमर्थं वाली चैतेन सुग्रीवप्रियकाम्यया।
तदा वैरे समुत्पन्ने न दग्धो वीरुधो यथा॥ ११॥
 
 
अनुवाद
 
  क्योंकि वालि ने सुग्रीव की प्रेमिका के प्रति प्रेम के कारण, उस समय वैमनस्य होने के पश्चात भी उसको इस तरह नहीं जलाया जैसे दावानल वृक्ष को जला देता है, यह समझ से परे है।
 
 
 
  Connect Form
  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
  © copyright 2024 vedamrit. All Rights Reserved.