श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 7: उत्तर काण्ड  »  सर्ग 30: ब्रह्माजी का इन्द्रजित को वरदान देकर इन्द्र को उसकी कैद से छुड़ाना और उनके पूर्वकृत पापकर्म को याद दिलाकर उनसे वैष्णव- यज्ञ का अनुष्ठान करने के लिये कहना, उस यज्ञ को पूर्ण करके इन्द्र का स्वर्ग लोक में जाना  »  श्लोक 47
 
 
श्लोक  7.30.47 
 
 
तेन त्वं ग्रहणं शत्रोर्यातो नान्येन वासव।
शीघ्रं वै यज यज्ञं त्वं वैष्णवं सुसमाहित:॥ ४७॥
 
 
अनुवाद
 
  वासुदेव! तुम उस शाप के कारण ही शत्रु के वश में हो, किसी अन्य कारण से नहीं। इसलिए अब एकाग्र चित्त होकर शीघ्र ही वैष्णव यज्ञ का अनुष्ठान करो।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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