श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 7: उत्तर काण्ड  »  सर्ग 30: ब्रह्माजी का इन्द्रजित को वरदान देकर इन्द्र को उसकी कैद से छुड़ाना और उनके पूर्वकृत पापकर्म को याद दिलाकर उनसे वैष्णव- यज्ञ का अनुष्ठान करने के लिये कहना, उस यज्ञ को पूर्ण करके इन्द्र का स्वर्ग लोक में जाना  »  श्लोक 39-40
 
 
श्लोक  7.30.39-40 
 
 
तदाप्रभृति भूयिष्ठं प्रजा रूपसमन्विता।
सा तं प्रसादयामास महर्षिं गौतमं तदा॥ ३९॥
अज्ञानाद् धर्षिता विप्र त्वद्रूपेण दिवौकसा।
न कामकाराद् विप्रर्षे प्रसादं कर्तुमर्हसि॥ ४०॥
 
 
अनुवाद
 
  तबसे अधिकांश प्रजाएँ रूपवान होने लगीं। अहिल्या ने उस समय विनम्रता-पूर्वक वचनों द्वारा महर्षि गौतम को प्रसन्न किया और कहा - हे विप्रवर! हे ब्रह्मर्षि! देवराज इंद्र ने आपका ही रूप धारण करके मुझे कलंकित किया है। मैं उन्हें नहीं पहचान पाई थी। इसलिए अनजाने में मुझसे यह अपराध हुआ है, स्वेच्छाचार के वश में होकर नहीं। इसलिए आपको मुझ पर कृपा करनी चाहिए॥ ३९-४०॥
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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