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श्रीमद् वाल्मीकि रामायण
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काण्ड 7: उत्तर काण्ड
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सर्ग 19: रावण के द्वारा अनरण्य का वध तथा उनके द्वारा उसे शाप की प्राप्ति
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श्लोक 28
श्लोक
7.19.28
किं त्विदानीं मया शक्यं कर्तुं प्राणपरिक्षये।
नह्यहं विमुखी रक्षो युद्धॺमानस्त्वया हत:॥ २८॥
अनुवाद
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‘मेरे प्राण जा रहे हैं, अत: इस समय मैं क्या कर सकता हूँ? निशाचर! मुझे संतोष है कि मैंने युद्धसे मुँह नहीं मोड़ा। युद्ध करता हुआ ही मैं तेरे हाथसे मारा गया हूँ॥ २८॥
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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