रौद्रचापप्रयुक्तां तां नीलोत्पलदलप्रभाम्।
शिरसाधारयद् रामो न व्यथामभ्यपद्यत॥ ३५॥
अनुवाद
श्री रामचंद्र जी ने अपने सिर पर उस भयानक धनुष से छूटी और नीलकमल के समान श्यामवर्ण का प्रकाश फैलाती उस नाराच नाम की बाण माला को धारण किया, परंतु उन्हें पीड़ा नहीं हुई।