श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 6: युद्ध काण्ड  »  सर्ग 93: श्रीराम द्वारा राक्षस सेना का संहार  »  श्लोक 29-30
 
 
श्लोक  6.93.29-30 
 
 
शरीरनाभि सत्त्वार्चि: शरारं नेमिकार्मुकम्।
ज्याघोषतलनिर्घोषं तेजोबुद्धिगुणप्रभम्॥ २९॥
दिव्यास्त्रगुणपर्यन्तं निघ्नन्तं युधि राक्षसान्।
ददृशू रामचक्रं तत् कालचक्रमिव प्रजा:॥ ३०॥
 
 
अनुवाद
 
  युद्धक्षेत्र में राक्षसों का संहार करते हुए श्रीरामचंद्र जी बिल्कुल चक्र के समान दिखाई दे रहे थे। उनके शरीर का मध्य भाग यानी नाभि ही उस चक्र की नाभि थी, उनका बल ही उस चक्र से निकलने वाली ज्वाला थी, उनके बाण ही उस चक्र की अरे थे, उनका धनुष ही नेमि का स्थान ग्रहण कर रहा था, धनुष की टंकार और तलध्वनि ही उस चक्र की घर्घराहट थी, उनका तेज, बुद्धि और कांति आदि गुण ही उस चक्र की प्रभा थे और दिव्यास्त्रों के गुणों से युक्त उसका स्वरूप ही उस चक्र की धार थी। जैसे प्रलय काल में प्रजा कालचक्र का दर्शन करती है, उसी प्रकार उस समय राक्षस श्रीराम के रूप में उस चक्र को देख रहे थे।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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