युद्धक्षेत्र में राक्षसों का संहार करते हुए श्रीरामचंद्र जी बिल्कुल चक्र के समान दिखाई दे रहे थे। उनके शरीर का मध्य भाग यानी नाभि ही उस चक्र की नाभि थी, उनका बल ही उस चक्र से निकलने वाली ज्वाला थी, उनके बाण ही उस चक्र की अरे थे, उनका धनुष ही नेमि का स्थान ग्रहण कर रहा था, धनुष की टंकार और तलध्वनि ही उस चक्र की घर्घराहट थी, उनका तेज, बुद्धि और कांति आदि गुण ही उस चक्र की प्रभा थे और दिव्यास्त्रों के गुणों से युक्त उसका स्वरूप ही उस चक्र की धार थी। जैसे प्रलय काल में प्रजा कालचक्र का दर्शन करती है, उसी प्रकार उस समय राक्षस श्रीराम के रूप में उस चक्र को देख रहे थे।