श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 6: युद्ध काण्ड  »  सर्ग 87: इन्द्रजित और विभीषण की रोषपूर्ण बातचीत  »  श्लोक 21
 
 
श्लोक  6.87.21 
 
 
धर्मात् प्रच्युतशीलं हि पुरुषं पापनिश्चयम्।
त्यक्त्वा सुखमवाप्नोति हस्तादाशीविषं यथा॥ २१॥
 
 
अनुवाद
 
  धर्म से भ्रष्ट आचरण-स्वभाव वाले और पाप करने के दृढ़ निश्चय वाले व्यक्ति का त्याग करके हर प्राणी उसी तरह सुखी होता है, जैसे हाथ पर बैठे जहरीले सांप को त्याग देने से मनुष्य निर्भय हो जाता है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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