श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 6: युद्ध काण्ड  »  सर्ग 65: कुम्भकर्ण की रणयात्रा  »  श्लोक 30
 
 
श्लोक  6.65.30 
 
 
स काञ्चनं भारसहं निवातं
विद्युत्प्रभं दीप्तमिवात्मभासा।
आबध्यमान: कवचं रराज
संध्याभ्रसंवीत इवाद्रिराज:॥ ३०॥
 
 
अनुवाद
 
  तदनंतर कुम्भकर्ण के सीने पर कवच बाँधा गया। वह कवच शुद्ध सोने का था और भारी से भारी आघात सहने में सक्षम था। हथियारों से उसमें कोई छेद नहीं हो सकता था और उसकी चमक बिजली के समान चमक रही थी। यह कवच पहनकर कुम्भकर्ण ऐसे लग रहा था जैसे सूर्यास्त के समय लाल बादलों से घिरा हुआ पहाड़ हो।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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