श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 6: युद्ध काण्ड  »  सर्ग 57: प्रहस्त का रावण की आज्ञा से विशाल सेना सहित युद्ध के लिये प्रस्थान  »  श्लोक 44
 
 
श्लोक  6.57.44 
 
 
तत: प्रहस्त: कपिराजवाहिनी-
मभिप्रतस्थे विजयाय दुर्मति:।
विवृद्धवेगां च विवेश तां चमूं
यथा मुमूर्षु: शलभो विभावसुम्॥ ४४॥
 
 
अनुवाद
 
  तब दुष्ट-बुद्धि प्रहस्त विजय की अभिलाषा से वानरराज सुग्रीव की सेना की ओर बढ़ा और जैसे मरने के लिए पतंगा आग में गिर जाता है, उसी तरह वह तेजी से बढ़ती हुई वानर सेना में प्रवेश करने का प्रयास करने लगा।
 
 
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे सप्तपञ्चाश: सर्ग: ॥ ५ ७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके युद्धकाण्डमें सत्तावनवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ५ ७॥
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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