श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 5: सुन्दर काण्ड  »  सर्ग 54: लङ्कापुरी का दहन और राक्षसों का विलाप  »  श्लोक 32
 
 
श्लोक  5.54.32 
 
 
युगान्तकालानलतुल्यरूप:
समारुतोऽग्निर्ववृधे दिवस्पृक्।
विधूमरश्मिर्भवनेषु सक्तो
रक्ष:शरीराज्यसमर्पितार्चि:॥ ३२॥
 
 
अनुवाद
 
  हवा की सहायता से आग धधकती रही और इतनी बढ़ गई कि अब वो प्रलयकाल जैसी दिखने लगी थी। उसकी लपटें इतनी ऊँची थीं कि ऐसा लग रहा था जैसे वो आकाश तक पहुँच रही हों। लंका के महलों में लगी इस आग में धुएँ का नामो-निशान नहीं था। ये राक्षसों के शरीर रूपी घी से बार-बार बढ़ रही थी।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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