श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 5: सुन्दर काण्ड  »  सर्ग 47: रावणपुत्र अक्ष कुमार का पराक्रम और वध  »  श्लोक 4-6
 
 
श्लोक  5.47.4-6 
 
 
ततस्तप:संग्रहसंचयार्जितं
प्रतप्तजाम्बूनदजालचित्रितम्।
पताकिनं रत्नविभूषितध्वजं
मनोजवाष्टाश्ववरै: सुयोजितम्॥ ४॥
सुरासुराधृष्यमसङ्गचारिणं
तडित्प्रभं व्योमचरं समाहितम्।
सतूणमष्टासिनिबद्धबन्धुरं
यथाक्रमावेशितशक्तितोमरम्॥ ५॥
विराजमानं प्रतिपूर्णवस्तुना
सहेमदाम्ना शशिसूर्यवर्चसा।
दिवाकराभं रथमास्थितस्तत:
स निर्जगामामरतुल्यविक्रम:॥ ६॥
 
 
अनुवाद
 
  वह रथ उसे कठोर तपस्याओं के फलस्वरूप प्राप्त हुआ था। उस रथ में सोने की जाली लगी हुई थी और पताका फहरा रही थी। उसके ध्वजदंड में रत्न जड़े हुए थे। उसमें मन के समान वेग वाले आठ घोड़े अच्छी तरह से जुते हुए थे। वह रथ इतना शक्तिशाली था कि देवता या असुर भी उसे नष्ट नहीं कर सकते थे। उसकी गति कभी नहीं रुकती थी और वह बिजली की तरह प्रकाशित होता था। उस रथ को सभी आवश्यक वस्तुओं से सुसज्जित किया गया था। उसमें तरकस रखे गए थे और आठ तलवारें बंधी हुई थीं, जिससे वह और भी सुंदर दिखाई देता था। उसमें यथास्थान शक्ति और तोमर आदि अस्त्र-शस्त्र क्रम से रखे गए थे। चंद्रमा और सूर्य के समान दीप्तिमान् और सोने की रस्सी से युक्त युद्ध के सभी उपकरणों से सुशोभित उस रथ पर बैठकर अक्ष कुमार, जो देवताओं के समान पराक्रमी था, राजमहल से बाहर निकला।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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