श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 5: सुन्दर काण्ड  »  सर्ग 43: हनुमान जी के द्वारा चैत्यप्रासाद का विध्वंस तथा उसके रक्षकों का वध  »  श्लोक 16-18
 
 
श्लोक  5.43.16-18 
 
 
ततो वातात्मज: क्रुद्धो भीमरूपं समास्थित:॥ १६॥
प्रासादस्य महांस्तस्य स्तम्भं हेमपरिष्कृतम्।
उत्पाटयित्वा वेगेन हनूमान् मारुतात्मज:॥ १७॥
ततस्तं भ्रामयामास शतधारं महाबल:।
तत्र चाग्नि: समभवत् प्रासादश्चाप्यदह्यत॥ १८॥
 
 
अनुवाद
 
  तब पवनपुत्र हनुमान जी ने राक्षसों को इस प्रकार आक्रमण करते देखा तो क्रोधित होकर भयंकर रूप धारण किया। उन्होंने उस महल के एक सोने के स्तंभ को, जिसमें सौ धारें थीं, बड़ी तेज़ी से उखाड़ लिया। उखाड़कर उस महाबली वीर ने उसे घुमाना शुरू किया। घुमाने पर उससे आग प्रकट हुई, जिससे वह महल जलने लगा।
 
 
 
  Connect Form
  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
  © copyright 2024 vedamrit. All Rights Reserved.