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श्रीमद् वाल्मीकि रामायण
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सर्ग 34: सीताजी का हनुमान् जी के प्रति संदेह और उसका समाधान तथा हनुमान् जी के द्वारा श्रीरामचन्द्रजी के गुणों का गान
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श्लोक 15
श्लोक
5.34.15
स्वं परित्यज्य रूपं य: परिव्राजकरूपवान्।
जनस्थाने मया दृष्टस्त्वं स एव हि रावण:॥ १५॥
अनुवाद
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जो व्यक्ति मैंने नगर में देखा था और जिसने अपने असली रूप को छोड़कर संन्यासी का रूप धारण कर लिया था, तुम वही रावण हो।
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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