न विनश्येत् कथं कार्यं वैक्लव्यं न कथं मम।
लङ्घनं च समुद्रस्य कथं नु न वृथा भवेत्॥ ३९॥
कथं नु खलु वाक्यं मे शृणुयान्नोद्विजेत च।
इति संचिन्त्य हनुमांश्चकार मतिमान् मतिम्॥ ४०॥
अनुवाद
हनुमान जी ने बुद्धिमानीपूर्वक यह विचार किया कि ‘कार्य को विफल होने से कैसे बचाया जाए, मुझसे कोई लापरवाही न हो, समुद्र पार करना व्यर्थ न जाए और सीता जी मेरी बातें सुन लें, पर घबरा न जाएँ।’