श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 4: किष्किंधा काण्ड  »  सर्ग 67: हनुमान जी का समुद्र लाँघने के लिये उत्साह प्रकट करना, जाम्बवान् के द्वारा उनकी प्रशंसा तथा वेगपूर्वक छलाँग मारने के लिये हनुमान जी का महेन्द्र पर्वत पर चढ़ना  »  श्लोक 40
 
 
श्लोक  4.67.40 
 
 
वृतं नानाविधै: पुष्पैर्मृगसेवितशाद्वलम्।
लताकुसुमसम्बाधं नित्यपुष्पफलद्रुमम्॥ ४०॥
 
 
अनुवाद
 
  वह पर्वत नाना प्रकार के पुष्पयुक्त वृक्षों से भरा हुआ था, जहाँ वन्य पशु हरी-हरी घास चर रहे थे। लताओं और फूलों से वह इतना घना था कि उसमें से होकर गुज़रना मुश्किल था। उसके वृक्षों में हमेशा ही फल-फूल लगे रहते थे।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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