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श्रीमद् वाल्मीकि रामायण
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काण्ड 4: किष्किंधा काण्ड
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सर्ग 67: हनुमान जी का समुद्र लाँघने के लिये उत्साह प्रकट करना, जाम्बवान् के द्वारा उनकी प्रशंसा तथा वेगपूर्वक छलाँग मारने के लिये हनुमान जी का महेन्द्र पर्वत पर चढ़ना
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श्लोक 15-16
श्लोक
4.67.15-16
उदयात् प्रस्थितं वापि ज्वलन्तं रश्मिमालिनम्।
अनस्तमितमादित्यमहं गन्तुं समुत्सहे॥ १५॥
ततो भूमिमसंस्पृष्ट्वा पुनरागन्तुमुत्सहे।
प्रवेगेनैव महता भीमेन प्लवगर्षभा:॥ १६॥
अनुवाद
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सर्व श्रेष्ठ वानरो! पूर्व दिशा से निकलकर अपने तेज से प्रज्वलित होते हुए सूर्यदेव को मैं अस्त होने से पहले ही छू सकता हूं और वहां से पृथ्वी तक आकर यहाँ पैर रखे बिना ही पुनः उनके पास तक एक बहुत ही भयंकर गति से जा सकता हूं।
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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