श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 4: किष्किंधा काण्ड  »  सर्ग 65: जाम्बवान् और अङ्गद की बातचीत तथा जाम्बवान् का हनुमान्जी को प्रेरित करने के लिये उनके पास जाना  »  श्लोक 11-13
 
 
श्लोक  4.65.11-13 
 
 
पूर्वमस्माकमप्यासीत् कश्चिद् गतिपराक्रम:।
ते वयं वयस: पारमनुप्राप्ता: स्म साम्प्रतम्॥ ११॥
किं तु नैवं गते शक्यमिदं कार्यमुपेक्षितुम्।
यदर्थं कपिराजश्च रामश्च कृतनिश्चयौ॥ १२॥
साम्प्रतं कालमस्माकं या गतिस्तां निबोधत।
नवतिं योजनानां तु गमिष्यामि न संशय:॥ १३॥
 
 
अनुवाद
 
  "पहले के ज़माने में मुझमें भी दूर तक छलाँग मारने की कुछ शक्ति थी। यद्यपि अब मैं उस उम्र को पार कर चुका हूँ, फिर भी जिस कार्य के लिए वानरराज सुग्रीव और भगवान श्रीराम ने दृढ़ निश्चय किया है, उसकी उपेक्षा मैं नहीं कर सकता हूँ। अभी मेरी जो गति है, उसे आप सभी सुन लीजिए, मैं एक छलाँग में नब्बे योजन तक जा सकता हूँ, इसमें कोई संदेह नहीं है।"
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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