श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 4: किष्किंधा काण्ड  »  सर्ग 64: समुद्र की विशालता देखकर विषाद में पड़े हुए वानरों को आश्वासन दे अङ्गद का उनसे पृथक्-पृथक् समुद्र-लङ्घन के लिये उनकी शक्ति पूछना  »  श्लोक 5
 
 
श्लोक  4.64.5 
 
 
प्रसुप्तमिव चान्यत्र क्रीडन्तमिव चान्यत:।
क्वचित् पर्वतमात्रैश्च जलराशिभिरावृतम्॥ ५॥
 
 
अनुवाद
 
  उस समुद्र को कहीं तो तरंगों के अभाव में शांत देखकर यह लग रहा था जैसे वह सो गया हो। अन्यत्र जहाँ थोड़ी-थोड़ी लहरें उठ रही थीं, वहाँ वह क्रीडा करता हुआ प्रतीत होता था और दूसरे स्थलों में जहाँ बड़ी-बड़ी तरंगें उठती थीं, वहाँ पर्वतों की तरह जल की राशियाँ आवृत दिखाई देती थीं।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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