श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 4: किष्किंधा काण्ड  »  सर्ग 63: सम्पाति का पंखयुक्त होकर वानरों को उत्साहित करके उड़ जाना और वानरों का वहाँ से दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थान करना  »  श्लोक 15
 
 
श्लोक  4.63.15 
 
 
अथ पवनसमानविक्रमा:
प्लवगवरा: प्रतिलब्धपौरुषा:।
अभिजिदभिमुखां दिशं ययु-
र्जनकसुतापरिमार्गणोन्मुखा:॥ १५॥
 
 
अनुवाद
 
  तदनन्तर हनुमान जी के समान पराक्रमी वे श्रेष्ठ वानर अपना भूला हुआ पुरुषार्थ फिर से प्राप्त करके माता सीता की खोज के लिए उत्सुक होकर अभिजित् नक्षत्र से युक्त दक्षिण दिशा की ओर चल पड़े।
 
 
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे त्रिषष्टितम: सर्ग: ॥ ६ ३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके किष्किन्धाकाण्डमें तिरसठवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ६ ३॥
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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