श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 4: किष्किंधा काण्ड  »  सर्ग 62: निशाकर मुनि का सम्पाति को सान्त्वना देते हुए उन्हें भावी श्रीरामचन्द्रजी के कार्य में सहायता देने के लिये जीवित रहने का आदेश देना  »  श्लोक 15
 
 
श्लोक  4.62.15 
 
 
इच्छाम्यहमपि द्रष्टुं भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ।
नेच्छे चिरं धारयितुं प्राणांस्त्यक्ष्ये कलेवरम्।
महर्षिस्त्वब्रवीदेवं दृष्टतत्त्वार्थदर्शन:॥ १५॥
 
 
अनुवाद
 
  तत्वदर्शी महर्षि ने कहा था, "मैं भी उन दोनों भाइयों, राम और लक्ष्मण को देखना चाहता हूँ; परंतु अधिक समय तक प्राणों को धारण करने की इच्छा नहीं है। अतः वह समय आने से पहले ही मैं प्राणों को त्याग दूंगा"।
 
 
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे द्विषष्टितम: सर्ग: ॥ ६ २॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके किष्किन्धाकाण्डमें बासठवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ६ २॥
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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