मन नेत्र के रूप में आश्रय पाकर देखने की क्षमता खो बैठा—सूर्य के तेज से उसकी दृष्टि लुप्त हो गई। फिर मैंने बड़ी कोशिश की और पुनः मन और नेत्रों को सूर्यदेव में लगाया। इस तरह विशेष प्रयास करने पर फिर सूर्यदेव का दर्शन हुआ। वे हमें पृथ्वी के बराबर ही दिखाई पड़ रहे थे।