श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 4: किष्किंधा काण्ड  »  सर्ग 61: सम्पाति का निशाकर मुनि को अपने पंख के जलने का कारण बताना  »  श्लोक 12-13
 
 
श्लोक  4.61.12-13 
 
 
मनश्च मे हतं भूयश्चक्षु: प्राप्य तु संश्रयम्।
यत्नेन महता ह्यस्मिन् मन: संधाय चक्षुषी॥ १२॥
यत्नेन महता भूयो भास्कर: प्रतिलोकित:।
तुल्यपृथ्वीप्रमाणेन भास्कर: प्रतिभाति नौ॥ १३॥
 
 
अनुवाद
 
  मन नेत्र के रूप में आश्रय पाकर देखने की क्षमता खो बैठा—सूर्य के तेज से उसकी दृष्टि लुप्त हो गई। फिर मैंने बड़ी कोशिश की और पुनः मन और नेत्रों को सूर्यदेव में लगाया। इस तरह विशेष प्रयास करने पर फिर सूर्यदेव का दर्शन हुआ। वे हमें पृथ्वी के बराबर ही दिखाई पड़ रहे थे।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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