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श्रीमद् वाल्मीकि रामायण
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सर्ग 60: सम्पाति की आत्मकथा
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श्लोक 5
श्लोक
4.60.5
लब्धसंज्ञस्तु षड्रात्राद् विवशो विह्वलन्निव।
वीक्षमाणो दिश: सर्वा नाभिजानामि किंचन॥ ५॥
अनुवाद
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मैं जब होश में आया, तो छह रातें बीत चुकी थीं। मैं विवश और विह्वल-सा था। मैंने अपने आस-पास की हर दिशा की ओर देखा, लेकिन मैं किसी भी वस्तु को नहीं पहचान सका।
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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