श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 4: किष्किंधा काण्ड  »  सर्ग 60: सम्पाति की आत्मकथा  »  श्लोक 10
 
 
श्लोक  4.60.10 
 
 
अवतीर्य च विन्ध्याग्रात् कृच्छ्रेण विषमाच्छनै:।
तीक्ष्णदर्भां वसुमतीं दु:खेन पुनरागत:॥ १०॥
 
 
अनुवाद
 
  विंध्याचल के उस ऊँचे-नीचे शिखर से धीरे-धीरे बड़ी मुश्किल से उतरकर मैं अंततः ज़मीन पर पहुँचा। उस समय मैं ऐसी जगह पर आ पहुँचा, जहाँ तीखे कुश उगे हुए थे। फिर वहाँ से भी दुख सहते हुए आगे बढ़ा।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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