श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 4: किष्किंधा काण्ड  »  सर्ग 56: सम्पाति से वानरों को भय, उनके मुख से जटायु के वध की बात सुनकर सम्पाति का दुःखी होना और अपने को नीचे उतारने के लिये वानरों से अनुरोध करना  »  श्लोक 4-5
 
 
श्लोक  4.56.4-5 
 
 
विधि: किल नरं लोके विधानेनानुवर्तते।
यथायं विहितो भक्ष्यश्चिरान्मह्यमुपागत:॥ ४॥
परम्पराणां भक्षिष्ये वानराणां मृतं मृतम्।
उवाचैतद् वच: पक्षी तान् निरीक्ष्य प्लवंगमान्॥ ५॥
 
 
अनुवाद
 
  ‘जैसे लोकमें पूर्वजन्मके कर्मानुसार मनुष्यको उसके कियेका फल स्वत: प्राप्त होता है, उसी प्रकार आज दीर्घकालके पश्चात् यह भोजन स्वत: मेरे लिये प्राप्त हो गया। अवश्य ही यह मेरे किसी कर्मका फल है। इन वानरोंमेंसे जो-जो मरता जायगा, उसको मैं क्रमश: भक्षण करता जाऊँगा’ यह बात उस पक्षीने उन सब वानरोंको देखकर कहा॥ ४-५॥
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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