श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 4: किष्किंधा काण्ड  »  सर्ग 33: लक्ष्मण का सुग्रीव के महल में क्रोधपूर्वक धनुष को टंकारना, सुग्रीव का तारा को उन्हें शान्त करने के लिये भेजना तथा तारा का समझा-बुझाकर उन्हें अन्तःपुर में ले आना  »  श्लोक 54
 
 
श्लोक  4.33.54 
 
 
तच्चापि जानामि तथाविषह्यं
बलं नरश्रेष्ठ शरीरजस्य।
जानामि यस्मिंश्च जनेऽवबद्धं
कामेन सुग्रीवमसक्तमद्य॥ ५४॥
 
 
अनुवाद
 
  नरश्रेष्ठ! जिस शरीर में उत्पन्न हुए काम का असहनीय बल होता है, उससे मैं भी परिचित हूँ। साथ ही, काम के वशीभूत होकर सुग्रीव किसमें आसक्त हो रहे हैं, इससे भी मैं अवगत हूँ। वहीं, यह भी मैं जानती हूँ कि काम के कारण सुग्रीव का मन आजकल किसी दूसरे कार्य में नहीं लगता है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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