श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 4: किष्किंधा काण्ड  »  सर्ग 33: लक्ष्मण का सुग्रीव के महल में क्रोधपूर्वक धनुष को टंकारना, सुग्रीव का तारा को उन्हें शान्त करने के लिये भेजना तथा तारा का समझा-बुझाकर उन्हें अन्तःपुर में ले आना  »  श्लोक 51
 
 
श्लोक  4.33.51 
 
 
न कोपकाल: क्षितिपालपुत्र
न चापि कोप: स्वजने विधेय:।
त्वदर्थकामस्य जनस्य तस्य
प्रमादमप्यर्हसि वीर सोढुम्॥ ५१॥
 
 
अनुवाद
 
  वीर राजकुमार! क्रोध करने का यह समय नहीं है। अपने ही लोगों पर भी क्रोध नहीं करना चाहिए। सुग्रीव के मन में सदैव आपका कार्य सिद्ध करने की इच्छा रहती है। अतः यदि उनसे कोई भूल भी हो जाए तो आपको उसे क्षमा करना चाहिए।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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