श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 4: किष्किंधा काण्ड  »  सर्ग 18: श्रीराम का वाली की बात का उत्तर देते हुए उसे दिये गये दण्ड का औचित्य बताना,वाली का अपने अपराध के लिये क्षमा माँगते हुए अङ्गद की रक्षा के लिये प्रार्थना करना  »  श्लोक 31-32
 
 
श्लोक  4.18.31-32 
 
 
राजभिर्धृतदण्डाश्च कृत्वा पापानि मानवा:।
निर्मला: स्वर्गमायान्ति सन्त: सुकृतिनो यथा॥ ३१॥
शासनाद् वापि मोक्षाद् वा स्तेन: पापात् प्रमुच्यते।
राजा त्वशासन् पापस्य तदवाप्नोति किल्बिषम्॥ ३२॥
 
 
अनुवाद
 
  मनुष्य पाप करके यदि राजा के दिये हुए दण्ड को भोग लेते हैं, तो वे शुद्ध होकर पुण्यात्मा साधुपुरुषों की भाँति स्वर्गलोक में जाते हैं। जब चोर आदि पापी राजा के सामने उपस्थित होते हैं, तो राजा उन्हें दंड दे सकता है या दया करके छोड़ सकता है। इससे चोर आदि पापी व्यक्ति अपने पाप से मुक्त हो जाता है। लेकिन यदि राजा पापी को उचित दंड नहीं देता है, तो उसे स्वयं उसके पाप का फल भोगना पड़ता है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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