श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 3: अरण्य काण्ड  »  सर्ग 9: सीता का श्रीराम से निरपराध प्राणियों को न मारने और अहिंसा-धर्म का पालन करने के लिये अनुरोध  »  श्लोक 5-7
 
 
श्लोक  3.9.5-7 
 
 
कुतोऽभिलषणं स्त्रीणां परेषां धर्मनाशनम्।
तव नास्ति मनुष्येन्द्र न चाभूत् ते कदाचन॥ ५॥
मनस्यपि तथा राम न चैतद् विद्यते क्वचित्।
स्वदारनिरतश्चैव नित्यमेव नृपात्मज॥ ६॥
धर्मिष्ठ: सत्यसंधश्च पितुर्निर्देशकारक:।
त्वयि धर्मश्च सत्यं च त्वयि सर्वं प्रतिष्ठितम्॥ ७॥
 
 
अनुवाद
 
  परस्त्री विषयक अभिलाषा तो आपको कैसे हो सकती है? नरेंद्र! धर्म का नाश करने वाली यह कुत्सित इच्छा न तो आपके मन में कभी हुई, न तो है और न ही भविष्य में कभी होने की संभावना है। राजकुमार श्रीराम! यह दोष आपके मन में भी कभी नहीं आया (तो वाणी और क्रिया में कैसे आ सकता है?) आप सदैव अपनी धर्मपत्नी में अनुरक्त रहने वाले, धर्मनिष्ठ, सत्यप्रतिज्ञ और पिता की आज्ञा का पालन करने वाले हैं। आपमें धर्म और सत्य दोनों ही स्थित हैं। आपमें ही सब कुछ प्रतिष्ठित है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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