श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 3: अरण्य काण्ड  »  सर्ग 71: कबन्ध की आत्मकथा, अपने शरीर का दाह हो जाने पर उसका श्रीराम को सीता के अन्वेषण में सहायता देने का आश्वासन  »  श्लोक 8-9
 
 
श्लोक  3.71.8-9 
 
 
इन्द्रकोपादिदं रूपं प्राप्तमेवं रणाजिरे।
अहं हि तपसोग्रेण पितामहमतोषयम्॥ ८॥
दीर्घमायु: स मे प्रादात् ततो मां विभ्रमोऽस्पृशत् ।
दीर्घमायुर्मया प्राप्तं किं मां शक्र: करिष्यति॥ ९॥
 
 
अनुवाद
 
  यह रूप जो मेरा है, यह समर भूमि में युद्ध के कारण हुआ है। मैंने पूर्व काल में राक्षस होते हुए घोर तपस्या करके पितामह ब्रह्माजी को संतुष्ट किया और उन्होंने मुझे दीर्घजीवी होने का वरदान दिया। इससे मेरे मन में यह भ्रम या अहंकार उत्पन्न हो गया कि मुझे तो दीर्घकाल तक रहने वाली आयु प्राप्त हुई है; फिर इन्द्र मेरा क्या कर लेंगे?।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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