श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 3: अरण्य काण्ड  »  सर्ग 71: कबन्ध की आत्मकथा, अपने शरीर का दाह हो जाने पर उसका श्रीराम को सीता के अन्वेषण में सहायता देने का आश्वासन  »  श्लोक 5-6h
 
 
श्लोक  3.71.5-6h 
 
 
एतदेवं नृशंसं ते रूपमस्तु विगर्हितम्।
स मया याचित: क्रुद्ध: शापस्यान्तो भवेदिति॥ ५॥
अभिशापकृतस्येति तेनेदं भाषितं वच:।
 
 
अनुवाद
 
  देवर्षे! आपके वचनों से मैं सदैव के लिए हीन और तिरस्कार योग्य बना रहूँगा। यह सुनकर मैंने क्रोधित महर्षि से प्रार्थना की, "भगवन! इस अभिशाप के प्रभाव को समाप्त करें।" तब उन्होंने इस प्रकार कहा-
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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