श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 3: अरण्य काण्ड  »  सर्ग 70: श्रीराम और लक्ष्मण का परस्पर विचार करके कबन्ध की दोनों भुजाओं को काट डालना तथा कबन्ध के द्वारा उनका स्वागत  »  श्लोक 19
 
 
श्लोक  3.70.19 
 
 
विरूपं यच्च मे रूपं प्राप्तं ह्यविनयाद् यथा।
तन्मे शृणु नरव्याघ्र तत्त्वत: शंसतस्तव॥ १९॥
 
 
अनुवाद
 
  "श्रीरामजी! जो यह कुरूप रूप मुझे मिला है, यह मेरी ही दुष्टता का नतीजा है। यह सब कैसे हुआ, वह प्रसंग मैं आपको ठीक से बताता हूँ। आप मेरी बात सुनें।"
 
 
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे सप्ततितम: सर्ग: ॥ ७ ०॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अरण्यकाण्डमें सत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ७ ०॥
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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