को नु दारप्रणाशं ते साधु मन्येत राघव।
सरित: सागरा: शैला देवगन्धर्वदानवा:॥ ११॥
नालं ते विप्रियं कर्तुं दीक्षितस्येव साधव:।
अनुवाद
रघुनंदन! आपकी पत्नी के विनाश या अपहरण को कौन अच्छा समझेगा? जैसे यज्ञ में दीक्षित पुरुष का साधु प्रकृति वाला पुरोहित कभी अप्रिय नहीं कर सकता है, वैसे ही नदियाँ, समुद्र, पर्वत, देवता, गंधर्व और असुर-ये कोई भी आपके विरुद्ध आचरण नहीं कर सकते।