मा विषादं महाबुद्धे कुरु यत्नं मया सह।
इदं गिरिवरं वीर बहुकन्दरशोभितम्॥ १४॥
प्रियकाननसंचारा वनोन्मत्ता च मैथिली।
सा वनं वा प्रविष्टा स्यान्नलिनीं वा सुपुष्पिताम्॥ १५॥
सरितं वापि सम्प्राप्ता मीनवञ्जुलसेविताम्।
वित्रासयितुकामा वा लीना स्यात् कानने क्वचित्॥ १६॥
जिज्ञासमाना वैदेही त्वां मां च पुरुषर्षभ।
अनुवाद
महामते! आप विषाद न करें; मेरे साथ जानकी को ढूँढ़ने का प्रयत्न करें। वीरवर! यह सामने जो ऊँचा पर्वत दिखायी देता है, अनेक कन्दराओं से सुशोभित है। मिथिलेशकुमारी को वन में घूमना प्रिय लगता है, वे वन की शोभा देखकर हर्ष से उन्मत्त हो उठती हैं; अतः वन में गयी होंगी, अथवा सुन्दर कमल के फूलों से भरे हुए इस सरोवर के या मछलियों तथा वेतसलता से सुशोभित सरिता के तट पर जा पहुँची होंगी। अथवा पुरुषप्रवर! हमलोगों को डराने की इच्छा से हम दोनों उन्हें खोज पाते हैं कि नहीं, इस जिज्ञासा से कहीं वन में ही छिप गयी होंगी।