श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 3: अरण्य काण्ड  »  सर्ग 55: रावण का सीता को अपने अन्तःपुर का दर्शन कराना और अपनी भार्या बन जाने के लिये समझाना  »  श्लोक 34-35h
 
 
श्लोक  3.55.34-35h 
 
 
अलं व्रीडेन वैदेहि धर्मलोपकृतेन ते॥ ३४॥
आर्षोऽयं देवि निष्पन्दो यस्त्वामभिभविष्यति।
 
 
अनुवाद
 
  विदेह नंदिनी! अपने पति के त्याग और दूसरे पुरुष को अपनाने से धर्म का लोप होने का जो डर है, उसके कारण तुम्हें यहाँ लजाना नहीं चाहिए, ऐसी लाज करना व्यर्थ है। देवी! तुम्हारे साथ जो मेरा स्नेह सम्बन्ध है, वह आर्ष धर्मशास्त्रों द्वारा समर्थित है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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