श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 3: अरण्य काण्ड  »  सर्ग 55: रावण का सीता को अपने अन्तःपुर का दर्शन कराना और अपनी भार्या बन जाने के लिये समझाना  »  श्लोक 27-28h
 
 
श्लोक  3.55.27-28h 
 
 
अभिषेकजलक्लिन्ना तुष्टा च रमयस्व च।
दुष्कृतं यत्पुरा कर्म वनवासेन तद्‍गतम्॥ २७॥
यच्च ते सुकृतं कर्म तस्येह फलमाप्नुहि।
 
 
अनुवाद
 
  अभिषेक के जल से स्नान करके तुष्ट होकर तुम अपने आप को खेलकूद में लगाओ। तुम्हारे पहले किए गए बुरे कर्म वनवास के कष्टों को सह करके समाप्त हो गए हैं। अब जो तुम्हारे पुण्य कर्म शेष हैं, उनके फल का भोग यहीं करो।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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