रुदितं व्यपमृष्टास्रं चन्द्रवत् प्रियदर्शनम्।
सुनासं चारुताम्रोष्ठमाकाशे हाटकप्रभम्॥ २१॥
राक्षसेन्द्रसमाधूतं तस्यास्तद् वदनं शुभम्।
शुशुभे न विना रामं दिवा चन्द्र इवोदित:॥ २२॥
अनुवाद
चन्द्रमा के समान प्यारे दिखायी देने वाले सीता जी के उस सुन्दर मुख ने रोने के कारण तुरंत अपना लालित्य खो दिया था। उनके आँसू पोछे जा चुके थे। उनकी सुघड़ नाक और ताँबे जैसे लाल मनोहर होठ थे। आकाश में सूर्य अपनी सुनहरी किरणें बिखेर रहा था और राक्षसराज रावण के तेजी से चलने से उसमें कम्पन हो रहा था। इस प्रकार वह सुंदर मुख भी श्रीराम के बिना उस समय दिन में उगे चाँद की तरह कम मनोहर लग रहा था।