श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 3: अरण्य काण्ड  »  सर्ग 45: सीता के मार्मिक वचनों से प्रेरित होकर लक्ष्मण का श्रीराम के पास जाना  »  श्लोक 5-6
 
 
श्लोक  3.45.5-6 
 
 
तमुवाच ततस्तत्र क्षुभिता जनकात्मजा।
सौमित्रे मित्ररूपेण भ्रातुस्त्वमसि शत्रुवत्॥ ५॥
यस्त्वमस्यामवस्थायां भ्रातरं नाभिपद्यसे।
इच्छसि त्वं विनश्यन्तं रामं लक्ष्मण मत्कृते॥ ६॥
 
 
अनुवाद
 
  उनके इस व्यवहार से वहाँ जनकनंदिनी सीता क्षुब्ध हो उठीं और उनसे इस प्रकार बोलीं—‘सुमित्रानंदन! आप मित्र के रूप में अपने भाई के शत्रु ही जान पड़ते हैं, इसीलिए आप इस संकट की अवस्था में भी भाई के पास नहीं पहुँच रहे हैं। लक्ष्मण! मैं जानती हूँ, आप मुझ पर अधिकार करने के लिए इस समय श्रीराम का विनाश ही चाहते हैं॥ ५-६॥
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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