उनके इस व्यवहार से वहाँ जनकनंदिनी सीता क्षुब्ध हो उठीं और उनसे इस प्रकार बोलीं—‘सुमित्रानंदन! आप मित्र के रूप में अपने भाई के शत्रु ही जान पड़ते हैं, इसीलिए आप इस संकट की अवस्था में भी भाई के पास नहीं पहुँच रहे हैं। लक्ष्मण! मैं जानती हूँ, आप मुझ पर अधिकार करने के लिए इस समय श्रीराम का विनाश ही चाहते हैं॥ ५-६॥