श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 3: अरण्य काण्ड  »  सर्ग 45: सीता के मार्मिक वचनों से प्रेरित होकर लक्ष्मण का श्रीराम के पास जाना  »  श्लोक 31-33
 
 
श्लोक  3.45.31-33 
 
 
उपशृण्वन्तु मे सर्वे साक्षिणो हि वनेचरा:॥ ३१॥
न्यायवादी यथा वाक्यमुक्तोऽहं परुषं त्वया।
धिक् त्वामद्य विनश्यन्तीं यन्मामेवं विशङ्कसे॥ ३२॥
स्त्रीत्वाद् दुष्टस्वभावेन गुरुवाक्ये व्यवस्थितम्।
गच्छामि यत्र काकुत्स्थ: स्वस्ति तेऽस्तु वरानने॥ ३३॥
 
 
अनुवाद
 
  वन में रहने वाले सभी प्राणी मेरे कथन के साक्षी होकर सुनें। मैंने न्यायपूर्ण बात कही है, फिर भी आपने मेरे बारे में इतनी कठोर बात अपने मुँह से निकाली है। निश्चित ही आज आपका विवेक मर गया है। आप स्वयं अपना नाश चाहती हैं। लज्जा आती है आपको कि आप मुझपर ऐसा संदेह करती हैं। मैं बड़े भाई की आज्ञा का पालन करने के लिए दृढ़तापूर्वक तत्पर हूँ और आप केवल स्त्री होने के कारण साधारण महिलाओं के दुष्ट स्वभाव को अपनाकर मेरे प्रति ऐसी आशंका करती हैं। ठीक है, अब मैं वहाँ जा रहा हूँ जहाँ भैया श्रीराम गए हैं। सुमुखी! आपका कल्याण हो।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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