श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 3: अरण्य काण्ड  »  सर्ग 37: मारीच का रावण को श्रीरामचन्द्रजी के गुण और प्रभाव बताकर सीताहरण के उद्योग से रोकना  »  श्लोक 16-17
 
 
श्लोक  3.37.16-17 
 
 
धनुर्व्यादितदीप्तास्यं शरार्चिषममर्षणम्।
चापबाणधरं तीक्ष्णं शत्रुसेनापहारिणम्॥ १६॥
राज्यं सुखं च संत्यज्य जीवितं चेष्टमात्मन:।
नात्यासादयितुं तात रामान्तकमिहार्हसि॥ १७॥
 
 
अनुवाद
 
  पिताजी! धनुष ही जिसका फैला हुआ दीप्तिमान मुख है और बाण ही प्रभा है, जो अमर्ष से भरा हुआ है, धनुष और बाण धारण किए खड़ा है, रोषवश तीखे स्वभाव का परिचय देता है और शत्रुसेना के प्राण लेने में समर्थ है, उस रामरूपी यमराज के पास तुम्हें यहाँ अपने राज्यसुख और प्यारे प्राणों के मोह को छोड़कर सहसा नहीं जाना चाहिए।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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