अगुरूणां च मुख्यानां वनान्युपवनानि च।
तक्कोलानां च जात्यानां फलिनां च सुगन्धिनाम्॥ २२॥
पुष्पाणि च तमालस्य गुल्मानि मरिचस्य च।
मुक्तानां च समूहानि शुष्यमाणानि तीरत:॥ २३॥
शैलानि प्रवरांश्चैव प्रवालनिचयांस्तथा।
काञ्चनानि च शृङ्गाणि राजतानि तथैव च॥ २४॥
प्रस्रवाणि मनोज्ञानि प्रसन्नान्यद्भुतानि च।
धनधान्योपपन्नानि स्त्रीरत्नैरावृतानि च॥ २५॥
हस्त्यश्वरथगाढानि नगराणि विलोकयन्।
अनुवाद
कहीं उत्तम अगुरु के वन थे, जहाँ सुगंधित फल वाले तक्कोल वृक्षों के उपवन थे। कहीं तमाल के फूल खिले हुए थे और गोल मिर्च की झाड़ियाँ शोभा पा रही थीं। समुद्र के तट पर ढेर सारे मोती सूख रहे थे। कहीं ऊँची-ऊँची पर्वतमालाएँ थीं, जहाँ मूंगों की राशियाँ और सोने-चाँदी के शिखर थे। कहीं सुंदर, अद्भुत और स्वच्छ पानी के झरने दिखाई दे रहे थे। कहीं धन-धान्य से सम्पन्न, स्त्री-रत्नों से भरे हुए और हाथी, घोड़े और रथों से व्याप्त नगर दिखाई दे रहे थे। इन सबको देखकर रावण आगे बढ़ा।