श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 3: अरण्य काण्ड  »  सर्ग 35: रावण का समुद्रतटवर्ती प्रान्त की शोभा देखते हुए पुनः मारीच के पास जाना  »  श्लोक 16-17
 
 
श्लोक  3.35.16-17 
 
 
दिव्याभरणमाल्याभिर्दिव्यरूपाभिरावृतम्।
क्रीडारतविधिज्ञाभिरप्सरोभि: सहस्रश:॥ १६॥
सेवितं देवपत्नीभि: श्रीमतीभिरुपासितम्।
देवदानवसङ्घैश्च चरितं त्वमृताशिभि:॥ १७॥
 
 
अनुवाद
 
  दिव्य आभूषणों और पुष्पमालाओं से सुशोभित, दिव्य रूप धारण करने वाली सहस्रों अप्सराएँ वहाँ चारों ओर विचरण कर रही थीं। कितनी ही शोभाशाली देवांगनाएँ उस सिंधु तट का सेवन करती हुई आस-पास बैठी थीं। देवताओं और दानवों के समूह और अमृत का पान करने वाले देवगण वहाँ विचरण कर रहे थे।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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