स सायकैर्दुर्विषहैर्विस्फुलिङ्गैरिवाग्निभि:।
नभश्चकाराविवरं पर्जन्य इव वृष्टिभि:॥ ७॥
अनुवाद
यथा मेघ जल की वर्षा से आकाश को ढक देता है, उसी प्रकार श्रीरघुनाथजी ने भी अग्नि की चिनगारियों के समान दुःसह बाणों की वर्षा करके आकाश को भर दिया, जिससे कि वहाँ थोड़ी-सी भी जगह खाली नहीं रह गई।