श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 3: अरण्य काण्ड  »  सर्ग 25: राक्षसों का श्रीराम पर आक्रमण और श्रीरामचन्द्रजी के द्वारा राक्षसों का संहार  »  श्लोक 43-46
 
 
श्लोक  3.25.43-46 
 
 
सोष्णीषैरुत्तमाङ्गैश्च साङ्गदैर्बाहुभिस्तथा।
ऊरुभिर्बाहुभिश्छिन्नैर्नानारूपैर्विभूषणै:॥ ४३॥
हयैश्च द्विपमुख्यैश्च रथैर्भिन्नैरनेकश:।
चामरव्यजनैश्छत्रैर्ध्वजैर्नानाविधैरपि॥ ४४॥
रामेण बाणाभिहतैर्विच्छिन्नै: शूलपट्टिशै:।
खड्गै: खण्डीकृतै: प्रासैर्विकीर्णैश्च परश्वधै:॥ ४५॥
चूर्णिताभि: शिलाभिश्च शरैश्चित्रैरनेकश:।
विच्छिन्नै: समरे भूमिर्विस्तीर्णाभूद् भयंकरा॥ ४६॥
 
 
अनुवाद
 
  वह समरभूमि श्रीराम के बाणों से टुकड़े-टुकड़े हुए मुकुटों से सजे सिर, बाजूबंदों सहित भुजाएं, जाँघें, हाथ, विभिन्न प्रकार के आभूषण, घोड़े, उत्तम हाथी, टूटे-फूटे अनेक रथ, चँवर, व्यजन, छत्र, विभिन्न प्रकार के झंडे, टूटे हुए शूल, पट्टिश, खंडित तलवारें, बिखरे हुए प्रास, फरसे, चूर-चूर हुई शिलाएँ और टुकड़े-टुकड़े हुए कई विचित्र बाणों से पटी हुई थी। यह समरभूमि अत्यंत भयावह दिखायी दे रही थी।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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