तानि मुक्तानि शस्त्राणि यातुधानै: स राघव:॥ १२॥
प्रतिजग्राह विशिखैर्नद्योघानिव सागर:।
अनुवाद
श्री रघुनाथजी ने राक्षसों के छोड़े हुए उन अस्त्र और शस्त्रों का अपने बाणों से उसी प्रकार ग्रहण कर लिया, जैसे समुद्र नदियों के जल प्रवाह को अपने में समाहित कर लेता है।