श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 3: अरण्य काण्ड  »  सर्ग 2: वन के भीतर श्रीराम, लक्ष्मण और सीता पर विराध का आक्रमण  »  श्लोक 18-19
 
 
श्लोक  3.2.18-19 
 
 
अत्यन्तसुखसंवृद्धां राजपुत्रीं यशस्विनीम्।
यदभिप्रेतमस्मासु प्रियं वरवृतं च यत्॥ १८॥
कैकेय्यास्तु सुसंवृत्तं क्षिप्रमद्यैव लक्ष्मण।
या न तुष्यति राज्येन पुत्रार्थे दीर्घदर्शिनी॥ १९॥
 
 
अनुवाद
 
  अत्यन्त सुख में पली-बढ़ी यशस्विनी राजकुमारी सीता की यह कैसी दशा हो गई है! (हाय! कितनी कष्ट की बात है!) लक्ष्मण! वन में हमारे लिए जिस दुःख की प्राप्ति कैकेयी को अभीष्ट थी और जो कुछ उसे प्रिय था, जिसके लिए उसने वर माँगे थे, वह सब आज ही शीघ्रता से सिद्ध हो गया। तभी तो वह दूरदर्शी कैकेयी अपने पुत्र के लिए केवल राज्य लेकर संतुष्ट नहीं हुई थी।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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