काकुत्स्थ! आपकी उपस्थिति में मैं सदा पराधीन ही हूँ। मैं आपके आज्ञाकारी सेवक के रूप में सैकड़ों या अनन्त वर्षों तक आपकी सेवा करना चाहता हूँ। अतः आप स्वयं ही पधार कर उचित स्थान देख लें और जहाँ आपको ठीक लगे, वहाँ आश्रम बनाने के लिये मुझे निर्देश प्रदान करें।